सामाजिक कार्यकर्ता अशोक भगत अपने वैचारिक आधार से ज्यादा गांवों के विकास का आधार तैयार करने के लिए जाने जाते हैं. 1983 में उन्होंने देश के सबसे पिछड़े जिलों में से एक गुमला के बिशुनपुर से विकास भारती नामक संस्था बना कर ग्राम विकास के काम की शुरुआत की. आज इस संस्था की राज्य के हर जिले में उपस्थिति है.
विकास भारती का 30 वां साल चल रहा है. लंबी यात्र रही है. बहुत सारी चुनौतियां रही होंगी. इससे कैसे पार पाया.1983 व 2012 में क्या अंतर पाते हैं?
लंबी गाथा है. परेशानियां थीं. उस समय जब हम आये थे, तो पूरा समाज देश-दुनिया से कटा था. स्थानीय लोगों की अपनी जीवन शैली थी. अपने में मस्त थे. उन्हें अंदाज नहीं था कि दुनिया में क्या हो रहा है या क्या नहीं हो पा रहा है. शिक्षा नहीं होना भी इसका कारण था. फिर वैश्विकरण हुआ. जब मैं आया था तो विकास की छटपटाहट उस समय नहीं थी. आज विकास की छटपटाहट दिखती है. यह बदलाव लोगों में दिख रहा.
उत्तरप्रदेश में आप अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संगठन सचिव रहे. इस संगठन से राजनेता निकलते रहे हैं. आप सामाजिक कार्यकर्ता बने.
मेरे लिए प्रेरणा राष्ट्र रहा है. गांव के लिए काम करने की सोच रही है. नेतागिरी से देश व समाज नहीं बनता है. मुझे कोई लोक प्रसिद्धि नहीं चाहिए. पैसा कमाने की महत्वाकांक्षा नहीं थी. राष्ट्र निर्माण के लिए विद्यार्थी परिषद में जीवन लगाया था और अब भी देश के लिए ही काम कर रहा हूं.
आपने काम के लिए वैसे बिंदु चुने जो जीवन के असली आधार हैं. मिट्टी, पानी, पर्यावरण, ग्रामीण कौशल, परंपरागत विज्ञान आदि. भूमंडलीकरण व विकास की तेज दौड़ में ये तरीके आज भी गांव व वहां के लोगों के विकास के लिए कारगर हैं?
अब तो सब लोग यह बात मानने लगे. हमने गांव-गांव में सरकार बनायी. इससे विकेंद्रीकरण हुआ. इस बार जो मंदी आयी, उसमें खेती ही अपने अस्तित्व को बचा सकी है, बचा सकेगी. इससे पता चल गया कि इस देश की ताकत किसान व खेत ही हैं.
तो मंदी से कौन प्रभावित होगा. गांव का आदमी या शहर का आदमी?
गांव का आदमी मिट्टी कोड़ता है और अनाज उपजा कर खा लेता है. शहर वाले गांव पर निर्भर हैं. अनाज के लिए, सब्जी के लिए, जीवन से जुड़ी कई जरूरतों के लिए. जाहिर है मंडी पर निर्भर रहने वाले लोग ही मंदी से ज्यादा प्रभावित होंगे.
झारखंड की खेती कहां तक बदली है. इसके सामने क्या चुनौतियां हैं. आप मनरेगा का दस प्रतिशत बजट खेती को देने की बात कह रहे हैं. इसका तार्किक आधार क्या है?
किसान को, खेती को मनरेगा से मुक्त करना चाहिए. मैं जो पैसे देने की बात कहता हूं वह उन्हें मदद के रूप में दिया जाना चाहिए ताकि वह उस पैसे से अपनी खेती करवा सके. झारखंड में जंगल आधारित खेती व्यवस्था होने से पहले प्रगतिशील व आधुनिक खेती नहीं हो सकी. इस कारण भरपूर अनाज नहीं मिलता था. 12 महीनों के लिए लोगों के पास अन्न नहीं होता था. तीन-चार महीने लोग फल-फूल मसलन कटहल, आम आदि खा कर गुजारा करते थे. इधर खेती सुधरी है. किसानों में प्रयोगशीलता व प्रगतिशीलता आ रही है.
स्वास्थ्य, शिक्षा, गरीबी, ग्रामीण स्वच्छता, पर्यावरण, ग्रासरूट स्तर की शासन इकाइयों को सशक्त करने सहित कई मुद्दों पर आप काम कर रहे हैं. इतना कुछ कैसे हो पाता है?
हम लोगों के लिए काम करते हैं. विषय पर काम नहीं करते. जब हम किसी के लिए काम करते हैं, किसी गांव को काम करने के लिए चुनते हैं, तो वहां के हर पहलुओं पर विचार करते हैं. .और हमारे काम के दायरे में हर वह चीज आ जाती है जो जरूरी है. हम ग्रामीणों का सामना संपूर्ण रूप में करते हैं. इसलिए संपूर्ण विकास पर काम करते हैं. हम सिर्फ कार्यकर्ताओं के लिए काम नहीं करते हैं. बल्कि लोगों को प्रेरित करने की भी कोशिश करते हैं. उन्हें प्रेरित कर उस जगह पर काम खड़ा करते हैं.
झारखंड एक ऐसा राज्य है, जहां पर्याप्त मात्र में बारिश होती है. फिर भी पानी का संकट है. आप लोगों ने राज्य के 151 प्रखंडों में जल संरक्षण अभियान शुरू किया है. कैसे समस्या का हल होगा.
हमने नारा दिया है : खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में. हम पहाड़ों पर पानी रोकें. नदियों के किनारे तटबंध बना कर वहां पानी रोकें. पुराने तालाबों को पुनर्जीवित करें. सिंचाई के पुराने तरीकों को फिर से अपनायें. चापानल, बोरिंग से लाभ हुआ.
पर उसकी देख-रेख भी करें. कुएं का पानी हम पीते हैं. कुएं की सफाई करवायें. उसके रख-रखाव पर ध्यान दें. गांव का आदमी घर के काम में भी जो पानी खर्च करता है वह भी अंतत: खेत-बाड़ी में ही जाता है. शहर वालों को पानी को लेकर मानसिकता बदलनी होगी. उन्हें पानी का महत्व समझना होगा. उसे बचाना होगा. फैक्टरियां बहुत पानी लेती हैं, खर्च करती हैं. उस पर भी सोचना होगा.
आपको पौधरोपण के लिए राष्ट्रपति से सम्मान मिला. पौधरोपण व पर्यावरण को लेकर सरकार व आम आदमी की कितनी-कितनी भागीदारी आप मानते हैं?
आम आदमी के बिना सरकार क्या कर सकती है? आम आदमी को भागीदार बनाये बिना सरकार की कोशिशें सफल नहीं हो सकतीं. हमलोग फिर से पौधरोपण की बात करने जा रहे हैं. यह सरकार का काम है कि वह आमलोगों के अंदर पौधरोपण व पर्यावरण को लेकर जिज्ञासा पैदा करे, उसके बाद मांग पैदा कराये. फिर सरकार उसके लिए साधन उपलब्ध कराये, तो इसके ज्यादा बेहतर परिणाम आयेंगे.
भ्रष्टाचार के खिलाफ आप मुखर रहे हैं. क्या लगता है पंचायत राज निकाय के गठन से भ्रष्टाचार में कमी आयी है?
मैं जिला स्तर पर भ्रष्टाचार की जांच के लिए लोकपाल के गठन के पक्ष में हूं. पंचायत निकायों के गठन के बाद सरकार से आया पैसा अब गांव तक जा रहा है. पहले वह बीडीओ व प्रखंड तक सीमित रह जाता था. मुझे लगता है कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का सबसे बेहतर तरीका है कि हम ग्रामसभा को सशक्त करें. पंचायतों को मानिटरिंग का अधिकार दिया जाना चाहिए. योजनाएं बनाने का अधिकार दिया जाना चाहिए. उनके उपयोगिता प्रमाण पत्र के आधार पर ही काम होना चाहिए.
झारखंड के भ्रष्टाचार पर क्या कहेंगे.
झारखंड से ज्यादा भ्रष्टाचार कई दूसरे राज्यों में है. हां यहां कुछ संस्थाओं में सिस्टम नहीं बन पाने के कारण दिक्कते हैं.
झारखंड के पंचायत निकाय संभवत: देश के सबसे कम अधिकार व जिम्मेवारियों वाले पंचायत निकाय होंगे. क्या उन्हें जिम्मेवार नहीं बनाने से, उनके अधिकार नहीं दिये जाने से उनके अंदर एक कुंठा पैदा नहीं होगी. और दूसरे रूपों में इसका नुकसान नहीं दिखेगा?
मैंने सभी राज्यों के पंचायत निकायों के अधिकारों-दायित्वों का अध्ययन नहीं किया है, इसलिए यह कहना मुश्किल होगा. हां उन्हें अधिकार नहीं देने, जिम्मेवार नहीं बनाने का नुकसान हो रहा है. उन्हें जिम्मेवार बनाना व नियंत्रण में रखना सरकार की जिम्मेवारी बनती है. नहीं तो हमारे एक महत्वपूर्ण इंस्ट्रमेंट के गलत दिशा में काम करने का खतरा बना रहेगा. अफसोस की झारखंड में पंचायत राज विभाग काम नहीं कर रहा है.
क्या पंचायतों को कानून बनाने का हक व न्यायिक शक्तियां मिलनी चाहिए.
पंचायतों को न्यायिक ताकतें मिलनी चाहिए. उन्हें इस संबंध में फैसला लेने का हक देना चाहिए. जहां तक कानून बनाने का हक है, तो मेरा मानना है कि उन्हें आचार संहिता व योजनाओं के संबंध में नियम-कानून बनाने का हक मिलना चाहिए. वे अपने अधिकार क्षेत्र के लिए आचार संहिता बनायें तो अच्छा रहेगा.
पिछले दिनों आपने कार्तिक उरांव की सोच के अनुरूप एक विश्वविद्यालय की मांग को लेकर पदयात्र की. पदयात्र झारखंड सहित पड़ोसी राज्यों से गुजरी. आदिवासी चेतना के लिए यह एक महत्वपूर्ण काम है. कहां पाते हैं आप उनकी (आदिवासियों की) चेतना को?
कार्तिक बाबू ने आदिवासियों के लिए शक्ति विवि की परिकल्पना की थी. ताकि आदिवासियों के अंदर एक नयी शक्ति आये व उनकी संस्कृति का विकास हो. उन्हें सिर्फ म्यूजियम की चीजें नहीं बनायी जाये. उन्हें आधुनिक तकनीक व ज्ञान दिया जाये. इसी सोच के अनुरूप हमने विश्वविद्यालय के लिए पदयात्र की.
झारखंड को बदलने में कितना वक्त लगेगा.
झारखंड बदलेगा. झारखंड के गांवों में बदलाव आ रहा है. यहां के राजनीतिक लोग झारखंड को नेतृत्व नहीं दे पाये. इसलिए जरूरी है कि हम पॉजीटिव बातें करें. गांव में विकास को लेकर जो सुगबुगाहट है. उसको लेकर हम काम करें. पॉलिटिकल लीडरशिप भी इस चीज को समझे.
(पंचायतनामा से साभार)
This Article Posted on: July 5th, 2012 in PANCHAYATNAMA
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