झारखंड पंचायत महिला रिसोर्स सेंटर की टीम ने दो अप्रैल 2013 को रांची जिले के अनगड़ा प्रखंड की हेसल पंचायत का दौरा किया।
इस क्रम में नदीम अख्तर ने पब्लिक एजेंडा के लिए हेसल की मुखिया आशा देवी, पंचायत प्रतिनिधियों एवं कई जलसहिया से निर्मल भारत अभियान पर जानकारी लेकर यह रिपोर्ट लिखी है।
नदीम अख़्तर की रिपोर्ट
झारखंड के गांवों में महिलाओं ने जल-प्रबंधन की कमान थाम ली है। इससे जहां एक ओर स्वच्छता जागरूकता बढ़ रही है, वहीं बहू-बेटियों का आत्मविश्वास भी बढ़ रहा है।
अनगड़ा प्रखंड की हेसल पंचायत में जमुआरी गांव के बच्चे दो साल पहले तक लगातार बीमार पड़ते रहते थे। इसी पंचायत के दो बच्चों की मौत पिछले ही साल अचानक हो गयी, तो डॉक्टर भी नहीं बता पाये कि बच्चों की आकस्मिक मृत्यु क्यों हुई। इसके बाद गांव की एक महिला उषा देवी ने गांव के चापानलों की जांच की, तो पता चला कि दस में से सात चापानलों के पानी में 13 एमजी प्रति लीटर की मात्रा में नाइट्रेट मौजूद है। उषा ने लोगों को समझाया कि जिन चापानलों के पानी में अधिक नाइट्रेट है, उसका इस्तेमाल न करें। लेकिन गांव वाले मानने को तैयार नहीं थे। उन्हें लगता था कि गांव की इंटर पास उषा को क्या पता, चापानल से तो पानी साफ आ ही रहा है। फिर इसे पीने में क्या खराबी है?
उषा को एक साल का समय लगा लोगों को यह समझाने में कि नाइट्रेट के अधिक होने की जानकारी उसे उन उपकरणों से मिली है, जो उसे जल-सहिया बनते ही सरकार ने उपलब्ध कराये थे। धीरे-धीरे गांव के लोगों ने उन सभी चापानलों का इस्तेमाल बंद कर दिया और अब कुछ नये कुओं से पानी का इस्तेमाल किया जा रहा है। गांव के बच्चे आये दिन बीमार भी नहीं पड़ रहे हैं और पानी की नियमित जांच से समय-समय पर यह पता भी चल रहा है कि कहां से पानी पीना है और कहां से नहीं।यह बदलाव झारखंड के अधिकतर गांवों में आसानी से महसूस किया जा सकता है। राज्य के ग्रामीण इलाकों में पानी प्रबंधन की कमान जल-सहिया बहनों ने अपने हाथों में ले ली है, जिसका फायदा अंततः गांव के लोगों को ही मिल रहा है।
झारखंड में जल-सहिया की अवधारणा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की "आशा' कार्यकर्ताओं के ही समरूप ली गयी है। राज्य सरकार के पेयजल एवं स्वच्छता विभाग के तहत उनकी नियुक्ति ग्राम सभा के माध्यम से होती है। सन् 2012 में उनकी नियुक्ति शुरू हुई थी। झारखंड के 32 हजार गांवों में करीब 23 हजार की ग्राम सभाओं ने अपने यहां की बहू-बेटियों को जल सहिया के रूप में चुन लिया है।यह आवश्यक है कि जल-सहिया कोई महिला ही हो, जो गांव की कोई भी विधवा या विवाहित महिला हो सकती है। उनका चयन स्थायी होता है। यह पद या तो वर्तमान सहिया की मृत्यु या फिर इस्तीफे से ही रिक्त हो सकता है। हां, ग्राम सभा चाहे तो काम के आकलन के बाद उन्हें हटा सकती है, लेकिन अभी तक झारखंड के किसी पंचायत की ग्रामसभा ने एक भी सहिया को बर्खास्त नहीं किया है। सहिया के लिए कम से कम मैट्रिक पास की अनिवार्यता है।
प्रावधान यह भी है कि गांव में मैट्रिक पास महिला के न होने की स्थिति में आठवीं पास महिला भी जल सहिया बन सकती है। उनकी उम्र 25 से 45 वर्ष के बीच होनी चाहिए।फिलहाल उन्हें कार्य-आधारित प्रोत्साहन-राशि देने का प्रावधान है। जल सहिया को अपने गांव में चापानलों की स्थिति का पता लगाने, विद्यालयों और घरों में शौचालयों का उपयोग करने के लिए प्रेरित करने, आंगनबाड़ी की भौतिक स्थिति और बच्चों का ठहराव सुनिश्र्चित करने, उपस्थिति शत-प्रतिशत करने के लिए अभिभावकों से संपर्क करने, गांव में गंदे स्थान की सूची बनाने और सबसे अधिक उपयोग वाले चापानलों की सूची तैयार करने के साथ-साथ आम लोगों को खुले में शौच न करने के लिए प्रेरित करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। मासू गांव की जल सहिया सरिता बताती हैं कि उन्हें एक चापानल के जांच के बदले 15 रुपये का भुगतान करने का प्रावधान है। लेकिन भुगतान की प्रक्रिया बहुत धीमी है, इसलिए ज्यादातर सहिया को काम के बदले मिलनेवाली प्रोत्साहन राशि के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है।
हेसल की जल-सहिया उषा देवी बताती हैं कि उन्होंने लोगों को खुले में शौच न करने के लिए बहुत प्रेरित किया। कई लोग मान गये। गांव के 56 घरों में लोगों ने टाट का घेराव करके अस्थायी शौचालय बना भी लिया, लेकिन अब लोगों को इंतजार है कि "निर्मल भारत अभियान' के तहत मिलनेवाली राशि उन तक पहुंचे और वे पक्के शौचालय का निर्माण कर सकें।वैसे कुछ गांवों में केंद्रीय राशि लोगों तक पहुंची ही नहीं, इसलिए ज्यादातर घरों में पक्का शौचालय बन नहीं पाया। ऊपर से हाल ही में आयी आंधी-पानी में टाट घेर कर बने अस्थायी शौचालय नष्ट हो गये, तो लोगों ने फिर से खुले में शौच करना शुरू कर दिया है। गांवों में ऐसी स्थिति योजना की खूबी और उसके क्रियान्वयन में सरकारी कार्यप्रणाली की जड़ता को बखूबी दिखाती है। अनगड़ा के हेसल की मुखिया आशा देवी कहती हैं, "कल तक महिलाएं घरों से बाहर नहीं आती थीं, लेकिन आज वे लोगों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। राशि के भुगतान की वर्तमान व्यवस्था कारगर नहीं है।
अगर पंचायत को अधिकार दिया गया है, तो जनप्रतिनिधियों को सरकारी बाबुओं के हाथों की कठपुतली बनाकर क्यों छोड़ दिया गया है? एक-एक काम के लिए बीडीओ-सीओ का मुंह ताकना पड़ता है, जिससे होने वाले विलंब के कारण उत्साह भी जाता रहता है। यह व्यवस्था बदलनी चाहिए।'निर्मल भारत अभियान के राज्य समन्वयक डॉ रवींद्र बोहरा राशि भुगतान न होने के मसले पर कहते हैं, "ज्यादातर भुगतान ग्राम जल एवं स्वच्छता समिति के स्तर से ही होता है, जिसमें ग्राम पंचायत के सदस्य ही होते हैं। असल में अभी लोगों को काम की उपयोगिता से संबंधित औपचारिकताएं पूरी करने की आदत नहीं पड़ी है, जिसके चलते हो सकता है कि किसी एक स्थान पर भुगतान की समस्या हो, लेकिन यह हर जगह नहीं हो रहा है।' जल की उपलब्धता और स्वच्छता का जिम्मा अन्य राज्यों में स्वच्छता-दूत के जिम्मे है।
झारखंड में महिलाओं के हाथ में यह जिम्मेदारी सौंपने का उद्देश्य यह है कि स्वच्छता और मर्यादा का खयाल परिवार में महिलाएं ही रखती हैं। उन्हें हर रोज तरह-तरह की समस्याओं से दो चार होना पड़ता है इसलिए यह जरूरी भी था कि खुले में शौच जैसे संवेदनशील मुद्दे को लेकर महिलाएं ही अपने आस-पड़ोस को जागरूक करें। यह काम वे बखूबी कर भी रही हैं। कुल मिलाकर सहिया से झारखंड में महिला सशक्तिकरण का एक द्वार खुला है, जो संभावनाओं को सीमा से पार ले जाने जैसा है।
इस क्रम में नदीम अख्तर ने पब्लिक एजेंडा के लिए हेसल की मुखिया आशा देवी, पंचायत प्रतिनिधियों एवं कई जलसहिया से निर्मल भारत अभियान पर जानकारी लेकर यह रिपोर्ट लिखी है।
नदीम अख़्तर की रिपोर्ट
झारखंड के गांवों में महिलाओं ने जल-प्रबंधन की कमान थाम ली है। इससे जहां एक ओर स्वच्छता जागरूकता बढ़ रही है, वहीं बहू-बेटियों का आत्मविश्वास भी बढ़ रहा है।
अनगड़ा प्रखंड की हेसल पंचायत में जमुआरी गांव के बच्चे दो साल पहले तक लगातार बीमार पड़ते रहते थे। इसी पंचायत के दो बच्चों की मौत पिछले ही साल अचानक हो गयी, तो डॉक्टर भी नहीं बता पाये कि बच्चों की आकस्मिक मृत्यु क्यों हुई। इसके बाद गांव की एक महिला उषा देवी ने गांव के चापानलों की जांच की, तो पता चला कि दस में से सात चापानलों के पानी में 13 एमजी प्रति लीटर की मात्रा में नाइट्रेट मौजूद है। उषा ने लोगों को समझाया कि जिन चापानलों के पानी में अधिक नाइट्रेट है, उसका इस्तेमाल न करें। लेकिन गांव वाले मानने को तैयार नहीं थे। उन्हें लगता था कि गांव की इंटर पास उषा को क्या पता, चापानल से तो पानी साफ आ ही रहा है। फिर इसे पीने में क्या खराबी है?
उषा को एक साल का समय लगा लोगों को यह समझाने में कि नाइट्रेट के अधिक होने की जानकारी उसे उन उपकरणों से मिली है, जो उसे जल-सहिया बनते ही सरकार ने उपलब्ध कराये थे। धीरे-धीरे गांव के लोगों ने उन सभी चापानलों का इस्तेमाल बंद कर दिया और अब कुछ नये कुओं से पानी का इस्तेमाल किया जा रहा है। गांव के बच्चे आये दिन बीमार भी नहीं पड़ रहे हैं और पानी की नियमित जांच से समय-समय पर यह पता भी चल रहा है कि कहां से पानी पीना है और कहां से नहीं।यह बदलाव झारखंड के अधिकतर गांवों में आसानी से महसूस किया जा सकता है। राज्य के ग्रामीण इलाकों में पानी प्रबंधन की कमान जल-सहिया बहनों ने अपने हाथों में ले ली है, जिसका फायदा अंततः गांव के लोगों को ही मिल रहा है।
झारखंड में जल-सहिया की अवधारणा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की "आशा' कार्यकर्ताओं के ही समरूप ली गयी है। राज्य सरकार के पेयजल एवं स्वच्छता विभाग के तहत उनकी नियुक्ति ग्राम सभा के माध्यम से होती है। सन् 2012 में उनकी नियुक्ति शुरू हुई थी। झारखंड के 32 हजार गांवों में करीब 23 हजार की ग्राम सभाओं ने अपने यहां की बहू-बेटियों को जल सहिया के रूप में चुन लिया है।यह आवश्यक है कि जल-सहिया कोई महिला ही हो, जो गांव की कोई भी विधवा या विवाहित महिला हो सकती है। उनका चयन स्थायी होता है। यह पद या तो वर्तमान सहिया की मृत्यु या फिर इस्तीफे से ही रिक्त हो सकता है। हां, ग्राम सभा चाहे तो काम के आकलन के बाद उन्हें हटा सकती है, लेकिन अभी तक झारखंड के किसी पंचायत की ग्रामसभा ने एक भी सहिया को बर्खास्त नहीं किया है। सहिया के लिए कम से कम मैट्रिक पास की अनिवार्यता है।
प्रावधान यह भी है कि गांव में मैट्रिक पास महिला के न होने की स्थिति में आठवीं पास महिला भी जल सहिया बन सकती है। उनकी उम्र 25 से 45 वर्ष के बीच होनी चाहिए।फिलहाल उन्हें कार्य-आधारित प्रोत्साहन-राशि देने का प्रावधान है। जल सहिया को अपने गांव में चापानलों की स्थिति का पता लगाने, विद्यालयों और घरों में शौचालयों का उपयोग करने के लिए प्रेरित करने, आंगनबाड़ी की भौतिक स्थिति और बच्चों का ठहराव सुनिश्र्चित करने, उपस्थिति शत-प्रतिशत करने के लिए अभिभावकों से संपर्क करने, गांव में गंदे स्थान की सूची बनाने और सबसे अधिक उपयोग वाले चापानलों की सूची तैयार करने के साथ-साथ आम लोगों को खुले में शौच न करने के लिए प्रेरित करने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। मासू गांव की जल सहिया सरिता बताती हैं कि उन्हें एक चापानल के जांच के बदले 15 रुपये का भुगतान करने का प्रावधान है। लेकिन भुगतान की प्रक्रिया बहुत धीमी है, इसलिए ज्यादातर सहिया को काम के बदले मिलनेवाली प्रोत्साहन राशि के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है।
हेसल की जल-सहिया उषा देवी बताती हैं कि उन्होंने लोगों को खुले में शौच न करने के लिए बहुत प्रेरित किया। कई लोग मान गये। गांव के 56 घरों में लोगों ने टाट का घेराव करके अस्थायी शौचालय बना भी लिया, लेकिन अब लोगों को इंतजार है कि "निर्मल भारत अभियान' के तहत मिलनेवाली राशि उन तक पहुंचे और वे पक्के शौचालय का निर्माण कर सकें।वैसे कुछ गांवों में केंद्रीय राशि लोगों तक पहुंची ही नहीं, इसलिए ज्यादातर घरों में पक्का शौचालय बन नहीं पाया। ऊपर से हाल ही में आयी आंधी-पानी में टाट घेर कर बने अस्थायी शौचालय नष्ट हो गये, तो लोगों ने फिर से खुले में शौच करना शुरू कर दिया है। गांवों में ऐसी स्थिति योजना की खूबी और उसके क्रियान्वयन में सरकारी कार्यप्रणाली की जड़ता को बखूबी दिखाती है। अनगड़ा के हेसल की मुखिया आशा देवी कहती हैं, "कल तक महिलाएं घरों से बाहर नहीं आती थीं, लेकिन आज वे लोगों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। राशि के भुगतान की वर्तमान व्यवस्था कारगर नहीं है।
अगर पंचायत को अधिकार दिया गया है, तो जनप्रतिनिधियों को सरकारी बाबुओं के हाथों की कठपुतली बनाकर क्यों छोड़ दिया गया है? एक-एक काम के लिए बीडीओ-सीओ का मुंह ताकना पड़ता है, जिससे होने वाले विलंब के कारण उत्साह भी जाता रहता है। यह व्यवस्था बदलनी चाहिए।'निर्मल भारत अभियान के राज्य समन्वयक डॉ रवींद्र बोहरा राशि भुगतान न होने के मसले पर कहते हैं, "ज्यादातर भुगतान ग्राम जल एवं स्वच्छता समिति के स्तर से ही होता है, जिसमें ग्राम पंचायत के सदस्य ही होते हैं। असल में अभी लोगों को काम की उपयोगिता से संबंधित औपचारिकताएं पूरी करने की आदत नहीं पड़ी है, जिसके चलते हो सकता है कि किसी एक स्थान पर भुगतान की समस्या हो, लेकिन यह हर जगह नहीं हो रहा है।' जल की उपलब्धता और स्वच्छता का जिम्मा अन्य राज्यों में स्वच्छता-दूत के जिम्मे है।
झारखंड में महिलाओं के हाथ में यह जिम्मेदारी सौंपने का उद्देश्य यह है कि स्वच्छता और मर्यादा का खयाल परिवार में महिलाएं ही रखती हैं। उन्हें हर रोज तरह-तरह की समस्याओं से दो चार होना पड़ता है इसलिए यह जरूरी भी था कि खुले में शौच जैसे संवेदनशील मुद्दे को लेकर महिलाएं ही अपने आस-पड़ोस को जागरूक करें। यह काम वे बखूबी कर भी रही हैं। कुल मिलाकर सहिया से झारखंड में महिला सशक्तिकरण का एक द्वार खुला है, जो संभावनाओं को सीमा से पार ले जाने जैसा है।